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नीरज नैथानी… जब गालियां देते-देते दोनों पक्ष थक जाते तो अघोषित युद्ध विराम हो जाता

नीरज नैथानी
रुड़की, उत्तराखंड
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पर्वतीय गांवों में सुनहरी लड़ाई

साथियों पिछली बार मैंने बताया था कि पहाड़ी खेतों में ओडु कई बार लड़ाई-झगड़े की जड़ हुआ करते थे। हांलाकि, ओडु के अलावा भी तमाम सारी वजहें थीं झगड़ो की। वैसे देखा जाय तो पहाड़ी व मैदानी गांव‌ के लड़ाई-झगड़ों में बुनियादी फर्क है। जहां मैदान के कतिपय गांवों में रुतबा व रुवाब जमाने के लिए या अपनी दबंगई स्थापित करने के लिए लाठी-गोलियां चल जाना आम बात है वहीं, अधिकाशंत: पहाड़ी गावों में केवल जुबानी लड़ाई से ही भड़ास निकाल लिये जाने का रिवाज है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि पहाड़ी खेत आकार व क्षेत्रफल में बहुत छोटे होते हैं। इनमें खेती करना अत्यंत श्रम साध्य होता है। जितनी मेहनत की जाती है उस अनुपात में उत्पादन भी कतई नहीं होता है। ऊपर से तुर्रा ये कि पड़ोसी के डगंर उजाड़ खा जाएं तो जले कटे पर नमक छिड़कने जैसी स्थिति उत्पन्न होती है।

तब लड़ाई लाजमी हो जाती है। एक पक्ष से गालियों की बौछार शुरु होती है… तुम्हारा नास हो जाय… तुम्हारा कभी भला न हो… तुम्हारे घर में आग लगे… तुम्हारे खेत बांझे पड़ जांय…। उधर से प्रतिवाद शुरु होता है हमें क्या पता, जानवर तो जानवर है बिचारा, चला‌ गया चरने, उसकी नादानी का हम पर क्यों दोष‌ लगा रहे हो। परंतु प्रभावी पक्ष के पास लड़ने झगड़ने के नाम पर हर तर्क का उत्तर होता है। जानवर नादान है तो उसने तुम्हारा खेत क्यों नहीं चरा?जैसे तुम मक्कार वैसे ही तुम्हारे पशु भी दुष्ट। दूसरे के खेत में उजाड़ खाने जाएंगे, दूसरे की फसल बर्बाद करेंगे। अपने खेत में मुंह‌ नहीं मारेंगे। अरे तुम्हारे साथ तुम्हारे पशुओं का भी नाश हो.. ,वो बीमार पड़ जाएं… वो मर जाएं… वो एक एक कर खतम हो जाएं… तब पड़ेगी हमारे दिल को ठण्डक।

सच बात यह है कि दूसरा पक्ष हैरान था कि ये मवेशी‌ पता नहीं कैसे समझ जाते हैं कि ये अपने मालिक का खेत है इस पर मुंह नहीं लगाना है और ये वाला मेरे स्वामी के प्रतिद्वंदी का है इसकी कायदे से सफाई करनी‌ है। एक रिवाज और था जब‌ जंग-ए-मैदान में एक पक्ष से‌ गालियों बदु्आ के हमले पर हमले किए जा रहे हों तो दूसरा पक्ष मुंह पर कागज या गिलास का भोंपू सा बनाकर हुऊं… हुऊं… होओ… होओ… की जोरदार आवाज निकाल कर साबित करता कि तुम्हारी गाली तो हमने सुनी ही नहीं। और जाहिर है कि जब हमने तुम्हारी गाली सुनी नहीं तो हम पर इनका कोई असर भी नहीं होने वाला।खीज में दूसरा पक्ष गला फाड़ कर फिर से गाली की मिसाइलें दागता उधर से दूसरा पक्ष फिर भोंपू बनाकर गालियों के अटैक को निष्प्रभावी कर देता।
ऐसे में मजा लेने वाले अपने चौक से अपने-अपने हितैषियों के पक्ष में मिर्च मसाला लगाकर समर्थन करते। भई तू ठीक कह रहा है। हो भी तेरे साथ ज्यदती ही रही है। तेरी भलमानस का‌ फायदा उठा रहे हैं।

उधर, दूसरे पक्ष के हितैषियों का छौंका भी कम असरदार नहीं होता। एक बार सीधापना दिखा दो तो हमेशा दबाएंगे। इस समय दबना मत। करारा जवाब दे, समझता है अपने आपको। तुम्हें देखकर जलता है। अच्छा उन लड़ाई करने वाले परिवारों के स्कूल में पढ़ने वाले छोटे-छोटे बच्चे निर्मल भाव से एक-दूसरे के साथ खेलते। जब तक वे छोटे मासूम रहते वे भाई-बहन जैसे या दोस्त बनकर एक-दूसरे के गलबहिंया डालकर मचलते। मजेदार बात यह थी कि इन छोटे बच्चों के लड़ने-झगड़ने को मुद्दा बनाकर बड़े आपस में खूब तू-तू मैं-मैं करते, लड़ाई लड़ते गाली-गलौज करते तथा जिस समय वे एक-दूसरे पर आग उगल रहे होते उनके ये बच्चे कुट्टी की अप्पा कर परस्पर खेल रहे होते।

परंतु थोड़ा बड़ा व समझदार हो जाने पर अक्ल आ जाती कि ये तो हमारे शत्रु पक्ष का है। कहने का मतलब समझदारी उन्हें बैर भाव सिखाती जबकि, नासमझी में हमेशा एक बने रहे। जब गालियां देते-देते दोनों पक्ष थक जाते तो अघोषित युद्ध विराम हो जाता। कोई जीता नहीं कोई पराजित नहीं हुआ होता। दोनों पक्ष अपने-अपने हिसाब से खुश मैंने उसे जमकर सुना दिया।

पहाड़ के ग्रामीण आंचल में ऐसे लड़ाई-झगड़े वस्तुत:जीवन की नीरसता को भंग करने में‌ सहायक होते। कई बार पंधेरे में पहले पानी‌ भरने को लेकर, तो कभी केवल इसी बात पर कि कुछ दिनों से कोई लड़ाई ही नहीं हुयी, मन की‌ भड़ास ही नहीं निकाली, कोई सीन ही नहीं हुआ या केवल ध्यानाकर्षण भर के लिए भी लोग लड़ते। बड़ा सकून मिलता दूसरे को खरी-खोटी सुनाकर। लेकिन, साहब हमारे गांव की लड़ाई दूसरे को केवल शाब्दिक प्रहार पहुंचाकर ही सकून पा जाती इसमें, भौतिक के स्थान पर भावनात्मक चोट की जाती। कुछ भी कहिए बड़ी अनोखी होती थी हमारे गांव की लड़ाई।

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