नीरज नैथानी… उस जमाने में इमरजेंसी एम्बुलेंस होती थी ‘पिनस’
नीरज नैथानी
रुड़की, उत्तराखंड
मेरे गांव की पिनस
अपने गांव के संदर्भ में, मैं आपके साथ एक पुरानी किंतु रोचक जानकारी साझा करना चाहता हूं। आज से तकरीबन चालीस पैंतालीस साल पहले हमारे गांव के ऊपर पिछड़े पहाड़ी इलाके का ठप्पा लगा हुआ था। वैसे अनेक संदर्भों में यह पिछड़ा था भी, जैसे कि गांव में बिजली नहीं थी, सड़क नहीं थी, यातायात के साधन नहीं थे, निकटतम बाजार जाने के लिए कई किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था। उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी और सबसे बड़ी बात स्वास्थ्य सुविधाओं का नितांत अभाव था। ऐसे में यदि कोई गांव में बीमार पड़ गया, उसे किसी उपचार की आवश्यकता है, किसी अस्पताल ले जाना है, किसी डाक्टर को दिखाना है और वह पैदल चलने की स्थिति में बिल्कुल नहीं है तो फिर काम आती थी पिनस।
हां, जी पिनस। यह पालकी जैसी लकड़ी की संरचना होती थी। जिसमें उपचार के लिए रोगी को आराम मुद्रा में अधलेटा करके ले जाया जाता था।
इसके अगले व पिछले हिस्से में दो मूठ होती थीं जिन्हें अपने कंधों पर रखकर पिनस को रोगी सहित उठाया जाता था। पहाड़ी गांव के उतार-चढ़ाई के कम चौड़ाई वाले पैदल रास्तों पर संतुलन बनाकर चलना सरल काम नहीं होता था। लेकिन, तारीफ करनी होगी गांव के उन जीवट लोगों की जो मरीज को पिनस में बैठाए मीलों पैदल चलकर किसी अस्पताल में पहुंचाते थे।
अस्पताल में डाक्टर को दिखाकर मरीज के लिए दवाएं लेने के पश्चात फिर पिनस में बिठाकर कंधों में रखा व चल दिए गांव की ओर। लम्बी दूरी का रास्ता होने पर दो-चार अतिरिक्त आदमी भी साथ चलते थे। बदल-बदल कर एक-दूसरे को विश्राम देते हुए रोगी की पिनस को गांव पहुंचाया जाता था।
एक तरह से उस जमाने की इमरजेंसी एम्बुलेंस होती थी यह पिनस। आज भी चढ़ाई के जिस पैदल रास्ते पर सिर्फ खाली हाथ चलने पर एक आम आदमी की सांस फूलने लगती है, उन दुर्गम राहों में अपने कंधों में बोझ उठाकर दूसरे की सहायता करना किसी बहुत बड़े परोपकार से कम न था।लेकिन, हमारे गांव वालों के लिए यह एक सामान्य किंतु आकस्मिक आवश्यकता थी।
रोगी आधा तो मनोवैज्ञानिक रूप से ही ठीक हो जाता था कि मेरे कष्ट के निवारण के लिए इतने सारे लोग इकठ्ठा हैं। पिनस ले जाने वाले समूह का हर सदस्य कहता था चिंता मत कर हम तेरा इलाज कराएंगे। तुझे अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाएंगे। तू अकेला नहीं है हम सब तेरे साथ हैं। इतने सारे लोगों की सहानुभूति से रोगी को असीम संबल मिलता था।
मैं कह सकता हूं कि हमारे गांव के ऊपर पिछड़े इलाके का ठप्पा चस्पा करने वाले लोग इस प्रकार की उच्च स्तरीय मानवीय सद्भावनाओं के मर्म को समझ सकते तो वे निश्चय ही अपनी धारणा बदलने पर विवश हो जाते। उस समय हमारे गांव में भले ही भौतिक संसाधन उपलब्ध नहीं थे। सुविधाओं का नितांत अभाव था परंतु, मानवीय संवेदनाएं जिंदा थीं। लोग एक-दूसरे की सहायता को तत्पर रहते थे। एक-दूसरे के सुख दुख में शामिल होते थे।व्यक्ति आत्मकेंद्रित नहीं था सामूहिकता व सद्भावना जीवन मूल्यों के सर्वोपरि मानदण्ड थे।