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राष्ट्रीय पत्रिका लोक गंगा के मध्य हिमालय की जनजातियों पर केंद्रित विशेषांक का लोकार्पण

शब्द रथ न्यूज, ब्यूरो (shabd rath news)। राष्ट्रीय पत्रिका लोक गंगा के मध्य हिमालय की जनजातियों पर केंद्रित विशेषांक का लोकार्पण रविवार को वरिष्ठ साहित्यकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र, पूर्व उच्च शिक्षा निदेशक डॉ सविता मोहन, पुव उप शिक्षा निदेशक कमला पंता और वरिष्ठ कथाकार जितेन ठाकुर ने किया। बी-6 प्रीतम रोड पर आयोजित कार्यक्रम में ‘हिमालय के कैनवास पर जनजातियां’ विषय पर परिचर्चा भी हुई। में शहर के प्रबुद्ध साहित्यकारों द्वारा प्रतिभाग किया गया।

परिचर्चा में लोकगंगा के सम्पादक व गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा कि किसी भी जनजाति का विकास उसकी अस्मिता को नष्ट कर नहीं होना चाहिए। उसके विकास में उसकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान और संरक्षण आवश्यक है। सरकार की नीति इसके विपरीत है, जो घातक है। भारत की पहचान बनाने में जनजातियों की हजारों साल लंबी परंपराओं का विशेष योगदान है। रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन इतिहास ग्रंथों में जनजातीय समाज की वीरतापूर्ण भूमिका उल्लेखनीय है। आजादी के बाद जनजातीय चेतना में तेजी से ह्रास हुआ है, जो वस्तुतः चिन्ताजनक है।

डॉ सविता मोहन (पूर्व निदेशक उच्च शिक्षा उत्तराखंड) ने कहा कि हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में बसे होने के कारण उन जनजातियों के बारे में लोग बहुत कम जानते है। आज वैश्वीकरण संस्कृतियों की देशज पहचानो को लीलता जा रहा है तो इस समय लोक गंगा के इस अंक में लोक कथाएं, हारुल गाथाएं, एक मीठी बयार लगती है। परिचर्चा का संचालन करते हुए डॉ कमला पंत (पूर्व उप शिक्षा निदेशक) ने कहा कि आज सभ्यताओं के संक्रान्तिकाल है। महानगरों में रहने वाले छोटे शहर में रहने वालों को पूछते नही है। लोकगंगा द्वारा किया गया इस काल में जनजातियों के संरक्षित करने का कार्य बहुत बड़ा है मील का पत्थर है। जन जातियों की संस्कृति उनका रहन-सहन, खान-पान को आज की मुख्यधारा में मिलाना अनेकता में एकता है, की विविधता को दर्शाने का लोकगंगा का प्रयास है जो कि संग्रहणीय है। यह बुद्धि जीवियों द्वारा एवम सरकारों की तरफ से भी प्रयास हो।

वरिष्ठ साहित्यकार डॉ योगम्बर बड़त्वाल ने कहा कि जनजाति समाज की सबसे बड़ी उपादेयता इसलिए है कि उन्होंने लोकगीत, लोककला, रहन-सहन एवं खान-पान की पद्धति को जीवित रखा है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ विद्या सिंह ने कहा कि उत्तराखंड का वर्तमान स्वरूप निर्मित करने में किसी एक जाति विशेष का नहीं अपितु वर्तमान एवं पूर्व में निवास करने वाली किन्नर, गंधर्व, यक्ष, कोल, मुंड, किरात, हूंण, शक, दरद, खश, नाग आदि अनेकानेक जातियों का योगदान है। लोक गंगा का प्रस्तुत अंक इस अर्थ में संग्रहणीय है कि इसमें उत्तराखंड में वर्तमान में निवास करने वाली महत्वपूर्ण जनजातियों के बारे में विद्वान लेखकों ने जानकारी दी है। इतनी विस्तृत जानकारी एकत्र करने के लिए संपादक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं।

लोगगंगा की संयुक्त संपादक मंजू काला ने ‘हिमालय के कैनवास पर’ परिचर्चा में सभी प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों का स्वागत करते हुए कहा कि लोग गंगा के इस अंक में हिमालय की विशिष्ट जातियों चाहे वह किन्नौर की गद्दी समुदाय हो या गमशाली गांव की सामाजिक संरचना हो या रवांई घाटी की संस्कृति हो या फिर पाकिस्तान स्थित हिंदूकुश पर्वत की घाटी में रहने वाली जनजाति सभी को समेटा है। कार्यक्रम के अंत में लोग गंगा की प्रकाशक कल्पना बहुगुणा ने सभी आमंत्रित अतिथियों का धन्यवाद करते हुए कहा कि हमें इस विशेषांक को निकालने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, बात चाहे आलेखों की हो या आर्थिक पक्ष की हो। लेकिन, हम चाहते थे इन लुप्त होती हुई जनजाति की संस्कृति संरक्षित हो इस हेतु इस विशेषांक को निकालने का प्रयास किया।

इस अवसर पर अंबर खरबंदा, डॉ बसंती मठपाल, मुकेश नौटियाल, वीरेंद्र डंगवाल “पार्थ”, नरेंद्र उनियाल, इंद्रदेव रतूड़ी, रजनीश त्रिवेदी, डॉ राकेश बलूनी, शांति जिज्ञासु, पूनम नैथानी, तन्मय ममगाईं आदि मौजूद रहे।

हिमालय में जनजातियों के बसने का इतिहास पांच हजार साल पुराना

लोकगंगा के संस्थापक/प्रधान संपादक योगेश चंद्र बहुगुणा स्वास्थ्य खराब होने के कारण कार्यक्रम में नहीं आ पाए। अपने संदेश में उन्होंने कहा कि देश के भिन्न-भिन्न भागों से आकर मध्य हिमालय में इन जनजातियों के बसने का इतिहास पांच हजार साल पुराना है, इनमें घुमक्कड़ पशु चरवाहे, कृषक, खेतिहर व्यापारी, मजदूर, गृह और कुटीर उद्योग इन सभी प्रकार के लघु समुदाय रहे हैं। लोके गंगा के इस विशेषांक में हिमालय के सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन पर प्रकाश डालते हुए उनकी सामाजिक संरचना को संरक्षित करने का प्रयास किया है।

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